जानिए नवरात्र का विधान और महत्व---
भारतीय चिंतनधारा में ‘साधना’ आध्यात्मिक ऊर्जा और दैवी चेतना के विकास का सबसे विश्वसनीय साधन माना जाता है। तन्त्रगमों के अनुसार यह साधना नित्य एवं नैमित्तिक भेद से दो प्रकार की होती है। जो साधना जीवनभर एवं निरंतर की जाती है, वह नित्य साधना कहलाती है। रुद्रयामल तंत्र के अनुसार ऐसी साधना साधक का ‘धर्म’ है। किन्तु संसार एवं घर गृहस्थी के चक्रव्यूह में फंसे आम लोगों के पास न तो इतना समय होता है और नहीं इतना सामथ्र्य कि वे नित्य साधना कर सकें। अत: सद्गृहस्थों के जीवन में आने वाले कष्टों/दु:खों की निवृत्ति के लिए हमारे ऋषियों ने नैमित्तिक साधना का प्रतिपादन किया है। नैमित्तिक-साधना के इस महापर्व को ‘नवरात्र’ कहते हैं।
'अम्बे मैया तेरी जय जयकार' के शब्दों से गूँज उठती है भारत की वसुंधरा। हर भारतीय के मन में नवरात्र के दिन माँ की आराधना व पूजन की भावना होती है। ये तो सभी जानतें है कि नवरात्र दो होते हैं। एक नवरात्र आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से शुरू होता है। दूसरे नवरात्र का प्रारम्भ चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से।
चैत्र नवरात्र---(वर्ष 2012 में 23 मार्च 2012 के दिन से 12 अप्रैल 2012 तक रहेगें.)
इन नवरात्र का प्रारम्भ चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से। इसमें बड़े नवरात्र आश्विन मास में आने वाले नवरात्र को माना गया है। इसी नवरात्र में जगह-जगह गरबों की धूम रहती है। चैत्र में आने वाले नवरात्र में अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा का विशेष प्रावधान माना गया है। वैसे दोनों ही नवरात्र मनाए जाते हैं। फिर भी इस नवरात्र को कुल देवी-देवताओं के पूजन की दृष्टि से विशेष मानते है। आज के भागमभाग के युग में अधिकाँश लोग अपने कुल देवी-देवताओं को भूलते जा रहे हैं। कुछ लोग समयाभाव के कारण भी पूजा-पाठ में कम ध्यान दे पाते हैं। जब कि इस और ध्यान देकर आने वाली अनजान मुसीबतों से बचा जा सकता है। ये कोई अन्धविश्वास नहीं बल्कि शाश्वत सत्य हैं। इसे आजमाकर देखा जा सकता है।
जब हम संपूर्ण श्रद्धा से देवी की उपासना करते है, तो नारी का भी अपमान नहीं करना चाहिए यही हमारी सच्ची पूजा होगी। हमें कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपराध से भी बचना चाहिए। तब जाकर हम माँ जगदम्बा की कृपा पा सकते हैं।चैत्र नवरात्र में अधिकांशतः मन्त्रों का जाप व अनुष्ठान किया जाता है। ध्यान रहे कोई भी विद्या तभी सफल होती है जब हमारा मन निष्कपट होगा। वरना कितने ही जाप किए जाएँ कितने ही अनुष्ठान किए जाए सफल नहीं हो सकते। आइए, तन मन को शुद्ध कर संपूर्ण श्रद्धा व विश्वास से जप किया जाए। कोई भी मन्त्र जाप इन दिनों में सिद्ध होते है। इस नवरात्रि में विशेष रूप से दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाए तो कई कष्टों से बचा जा सकता है। वैसे भी इसके नित्य पाठ करने से शत्रुओं का नाश होता है। तेज में वृद्धि होती है,आत्मविश्वास बढ़ता है।
जब हम संपूर्ण श्रद्धा से देवी की उपासना करते है, तो नारी का भी अपमान नहीं करना चाहिए यही हमारी सच्ची पूजा होगी। हमें कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपराध से भी बचना चाहिए। तब जाकर हम माँ जगदम्बा की कृपा पा सकते हैं।चैत्र नवरात्र में अधिकांशतः मन्त्रों का जाप व अनुष्ठान किया जाता है। ध्यान रहे कोई भी विद्या तभी सफल होती है जब हमारा मन निष्कपट होगा। वरना कितने ही जाप किए जाएँ कितने ही अनुष्ठान किए जाए सफल नहीं हो सकते। आइए, तन मन को शुद्ध कर संपूर्ण श्रद्धा व विश्वास से जप किया जाए। कोई भी मन्त्र जाप इन दिनों में सिद्ध होते है। इस नवरात्रि में विशेष रूप से दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाए तो कई कष्टों से बचा जा सकता है। वैसे भी इसके नित्य पाठ करने से शत्रुओं का नाश होता है। तेज में वृद्धि होती है,आत्मविश्वास बढ़ता है।
23 मार्च 2012 के दिन से नव सम्वत्सर प्रारम्भ होगा. साथ ही इस दिन से चैत्र शुक्ल पक्ष का पहला नवरात्रा होने के कारण इस दिन कलश स्थापना भी की जायेगी. नवरात्रे के नौ दिनों में माता के नौ रुपों की पूजा करने का विशेष विधि विधान है. साथ ही इन दिनों में जप-पाठ, व्रत- अनुष्ठान, यज्ञ-दानादि शुभ कार्य करने से व्यक्ति को पुन्य फलों की प्राप्ति होती है. इस वर्ष में पहला नवरात्रा सोमवार के दिन रेवती नक्षत्र में प्रारम्भ होगा, तथा ये नवरात्रे 12 अप्रैल 2012 तक रहेगें.
दुर्गापूजा का प्रयोजन----
महामाया के प्रभाववश सांसारिक प्राणी अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर कभी जाने और कभी अनजाने में दु:खों के दलदल में फंसता चला जाता है। जैसा कि मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है-
ज्ञानिनामपि चेतांहि देवी भगवती हि सा।
महामाया के प्रभाववश सांसारिक प्राणी अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर कभी जाने और कभी अनजाने में दु:खों के दलदल में फंसता चला जाता है। जैसा कि मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है-
ज्ञानिनामपि चेतांहि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रगच्छति।।
इन सांसारिक कष्टों से, जिनको धर्म की भाषा में दुर्गति कहते हैं-इनसे मुक्ति के लिए माँ दुर्गा की उपासना करनी चाहिए क्योंकि ‘आराधिता सैव नृणां भोगस्वगपिवर्गहा’ मार्कण्डेय पुराण के इस वचन के अनुसार ‘माँ दुर्गा की उपासना करने से स्वर्ग जैसे भोग और मोक्ष जैसी शान्ति मिल जाती है।’ भारतीय जनमानस उस आद्या शक्ति ‘दुर्गा’ को माँ या माता के रूप में देखता और मानता है। इस विषय में आचार्य शंकर का मानना है कि जैसे पुत्र के कुपुत्र होने पर भी माता कुमाता नहीं होती। वैसी भगवती दुर्गा अपने भक्तों का वात्सल्य भाव से कल्याण करती है। अत: हमें उनकी पूजा/उपासना करनी चाहिए।नवदुर्गा----
‘एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा’- दुर्गासप्तशती के इस वचन के अनुसार वह आद्यशक्ति ‘एकमेव’ और ‘अद्वितीय’ होते हुए भी अपने भक्तों का कल्याण करने के लिए - 1. शैलपुत्री, 2. ब्रह्मचारिणी, 3. चन्द्रघण्टा, 4. कूष्माण्डा, 5. स्कन्धमाता, 6. कात्यायनी, 7. कालरात्रि, 8. महागौरी एवं 9. सिद्धिदात्री - इन नवदुर्गा के रूप में अवतरित होती है। वही जगन्माता सत्त्व, रजस् एवं तमस्- इन गुणों के आधार पर महाबाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करती हैं।दुर्गा-दुर्गतिनाशिनी-----
रुद्रयामल तन्त्र में आद्याशक्ति के ‘दुर्गा’ नाम का निर्वचन करते हुए प्रतिपादित किया गया है - ‘कि जो दुर्ग के समान अपने भक्तों की रक्षा करती है अथवा जो अपने भक्तों को दुर्गति से बचाती है, वह आद्याशक्ति ‘दुर्गा’ कहलाती है।’दुर्गापूजा का काल---
वैदिक ज्योतिष की काल-गणना के अनुसार हमारा एक वर्ष देवी-देवताओं का एक ‘अहोरात्र’ (दिन-रात) होता है। इस नियम के अनुसार मेषसंक्रांति को देवताओं का प्रात:काल और तुला संक्रांति को उनका सायंकाल होता है।
इसी आधार पर शाक्त तन्त्रों ने मेषसंक्रांति के आसपास चेत्र शुक्ल प्रतिपदा से बासन्तिक नवरात्रि और तुला संक्रांति के आसपास आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र का समय निर्धारित किया है। नवरात्रि के ये नौ दिन ‘दुर्गा पूजा’ के लिए सबसे प्रशस्त होते हैं।शारदीय नवरात्र का महत्व---
इन दोनों नवरात्रियों में शारदीय नवरात्र की महिमा सर्वोपरि है। ‘शरदकाले महापूजा क्रियते या च वाष्रेकी।’ दुर्गा सप्तशती के इस वचन के अनुसार शारदीय नवरात्र की पूजा वार्षिक पूजा होने के कारण ‘महापूजा’ कहलाती है। गुजरात-महाराष्ट्र से लेकर बंगाल-असम तक पूरे उत्तर भारत में इन दिनों ‘दुर्गा पूजा’ का होना, घर-घर में दुर्गापाठ, व्रत-उपवास एवं कन्याओं का पूजन होगा - इसकी महिमा और जनता की आस्था के मुखर साक्ष्य हैं।कन्या-पूजन----
अपनी कुल परम्परा के अनुसार कुछ लोग नवरात्र की अष्टमी को और कुछ लोग नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा एवं हवन करने के बाद कन्यापूजन करते हैं। कहीं-कहीं यह पूजन सप्तमी को भी करने का प्रचलन है।
कन्या पूजन में दो वर्ष से दस वर्ष तक की आयु वाली नौ कन्याओं और एक बटुक का पूजन किया जाता है। इसकी प्रक्रिया में सर्वप्रथम कन्याओं के पैर धोकर, उनके मस्तक पर रोली-चावल से टीका लगाकर, हाथ में कलावा (मौली) बाँध, पुष्प या पुष्पमाला समर्पित कर कन्याओं को चुनरी उढ़ाकर हलवा, पूड़ी, चना एवं दक्षिणा देकर श्रद्धापूर्वक उनको प्रणाम करना चाहिए। कुछ लोग अपनी परंपरा के अनुसार कन्याओं को चूड़ी, रिबन व श्रृंगार की वस्तुएं भी भेंट करते हैं। कन्याएं माँ दुर्गा का भौतिक एक रूप हैं। इनकी श्रृद्धाभक्ति से पूजा करने से माँ दुर्गा प्रसन्न होती हैं।नवरात्र में उपवास----
व्रतराज के अनुसार नवरात्र के व्रत में - ‘निराहारो फलाहारो मिताहारो हि सम्मत:’ - अर्थात् निराहार, फलाहार या मिताहार करके व्रत रखना चाहिए। निराहार व्रत में केवल एक जोड़ा लौंग के साथ जल पीकर व्रत रखा जाता है। फलाहारी व्रत में एक समय फलाहार की वस्तुओं से भोजन किया जाता है, और मिताहारी व्रत में शुद्ध, सात्विक एवं शाकाहारी ‘हविष्यान्न’ का ग्रहण होता है। नवरात्रि के व्रत में नौ दिन व्रत रखकर नवमी को कन्या पूजन के बाद पारणा किया जाता है। जिन लोगों के अष्टमी पुजती है, वे अष्टमी को कन्या पूजन के बाद पारणा कर लेते हैं। यदि नौ दिन का व्रत रखने का सामथ्र्य हो, तो नवरात्र की प्रतिपदा, सप्तमी अष्टमी एवं नवमी में किसी एक या दो दिन का व्रत अपनी श्रद्धा एवं शक्ति के अनुसार रखना चाहिए।
तन्त्रगम के अनुसार व्रत के दिनों में आचार एवं विचार की शुद्धता का पालन करने पर जोर दिया गया है। अत: व्रत के दिनों में चोरी, झूठ, क्रोध, ईष्र्या, राग, द्वेष एवं किसी भी प्रकार का छल-छिद्र नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्रत के दिनों में मन, वचन एवं कर्म से किसी का दिल दु:खाना नहीं चाहिए। जहां तक सम्भव हो, दूसरों का भला करना चाहिए।पूजा के उपचार----
पूजा में जो सामग्री चढ़ाई जाती है, उनको उपचार कहते हैं, ये पंचोपचार, दशोपचार एवं षोडशोपचार के भेद से तीन प्रकार के होते हैं।
पंचोपचार : गन्ध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य - इन पाँचों को पंचोपचार कहते हैं।
दशोपचार : 1. पाध, 2. अघ्र्य, 3. आचमनीय, 4. मधुपर्क, 5. आचमनीय, 6. गन्ध, 7. पुष्प, 8. धूप, 9. दीप एवं 10. नैवेद्य - इनको दशोपचार कहते हैं।
षोडशोपचार : 1. आसन, 2. स्वागत, 3. पाध, 4. अघ्र्य, 5. आचमनीय, 6. मधुपर्क, 7. आचमन, 8. स्नान, 9. वस्त्र, 10. आभूषण, 11. गन्ध, 12. पुष्प, 13. धूप, 14. दीप, 15. नैवेद्य एवं प्रणामाज्जलि, इनको षोडशोपचार कहते हैं।व्रत/उपवास के फलाहार की वस्तुएं----
आलू, शक रकन्द, जिमिकन्द, दूध, दही, खोआ, खोआ से बनी मिठाइयों, कुट्ट, सिन्घाड़ा, साबूदाना, मूंगफली, मिश्री, नारियल, गोला, सूखे मेवा एवं मौसम के सभी फल-व्रतोपवास के फलाहार में प्रशस्त माने गये हैं। फलाहार की कोई भी वस्तु तेल में नहीं बनायी जाती और सादा नमक के स्थान पर सैन्धा (लाहौरी) नमक प्रयोग में लाया जाता है।सप्तमी/अष्टमी/नवमी की पूजा----
नवरात्र में अपनी कुल परम्परा के अनुसार सप्तमी, अष्टमी या नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा की जाती है। इसमें एकाग्रतापूर्वक जप, श्रद्धा एवं भक्ति से पूजन एवं हवन, मनोयोगपूर्वक पाठ तथा विधिवत कन्याओं का पूजन किया जाता है। इससे मनुष्य की सभी कामनाएं पूरी हो जाती हैं।
‘एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा’- दुर्गासप्तशती के इस वचन के अनुसार वह आद्यशक्ति ‘एकमेव’ और ‘अद्वितीय’ होते हुए भी अपने भक्तों का कल्याण करने के लिए - 1. शैलपुत्री, 2. ब्रह्मचारिणी, 3. चन्द्रघण्टा, 4. कूष्माण्डा, 5. स्कन्धमाता, 6. कात्यायनी, 7. कालरात्रि, 8. महागौरी एवं 9. सिद्धिदात्री - इन नवदुर्गा के रूप में अवतरित होती है। वही जगन्माता सत्त्व, रजस् एवं तमस्- इन गुणों के आधार पर महाबाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करती हैं।दुर्गा-दुर्गतिनाशिनी-----
रुद्रयामल तन्त्र में आद्याशक्ति के ‘दुर्गा’ नाम का निर्वचन करते हुए प्रतिपादित किया गया है - ‘कि जो दुर्ग के समान अपने भक्तों की रक्षा करती है अथवा जो अपने भक्तों को दुर्गति से बचाती है, वह आद्याशक्ति ‘दुर्गा’ कहलाती है।’दुर्गापूजा का काल---
वैदिक ज्योतिष की काल-गणना के अनुसार हमारा एक वर्ष देवी-देवताओं का एक ‘अहोरात्र’ (दिन-रात) होता है। इस नियम के अनुसार मेषसंक्रांति को देवताओं का प्रात:काल और तुला संक्रांति को उनका सायंकाल होता है।
इसी आधार पर शाक्त तन्त्रों ने मेषसंक्रांति के आसपास चेत्र शुक्ल प्रतिपदा से बासन्तिक नवरात्रि और तुला संक्रांति के आसपास आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र का समय निर्धारित किया है। नवरात्रि के ये नौ दिन ‘दुर्गा पूजा’ के लिए सबसे प्रशस्त होते हैं।शारदीय नवरात्र का महत्व---
इन दोनों नवरात्रियों में शारदीय नवरात्र की महिमा सर्वोपरि है। ‘शरदकाले महापूजा क्रियते या च वाष्रेकी।’ दुर्गा सप्तशती के इस वचन के अनुसार शारदीय नवरात्र की पूजा वार्षिक पूजा होने के कारण ‘महापूजा’ कहलाती है। गुजरात-महाराष्ट्र से लेकर बंगाल-असम तक पूरे उत्तर भारत में इन दिनों ‘दुर्गा पूजा’ का होना, घर-घर में दुर्गापाठ, व्रत-उपवास एवं कन्याओं का पूजन होगा - इसकी महिमा और जनता की आस्था के मुखर साक्ष्य हैं।कन्या-पूजन----
अपनी कुल परम्परा के अनुसार कुछ लोग नवरात्र की अष्टमी को और कुछ लोग नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा एवं हवन करने के बाद कन्यापूजन करते हैं। कहीं-कहीं यह पूजन सप्तमी को भी करने का प्रचलन है।
कन्या पूजन में दो वर्ष से दस वर्ष तक की आयु वाली नौ कन्याओं और एक बटुक का पूजन किया जाता है। इसकी प्रक्रिया में सर्वप्रथम कन्याओं के पैर धोकर, उनके मस्तक पर रोली-चावल से टीका लगाकर, हाथ में कलावा (मौली) बाँध, पुष्प या पुष्पमाला समर्पित कर कन्याओं को चुनरी उढ़ाकर हलवा, पूड़ी, चना एवं दक्षिणा देकर श्रद्धापूर्वक उनको प्रणाम करना चाहिए। कुछ लोग अपनी परंपरा के अनुसार कन्याओं को चूड़ी, रिबन व श्रृंगार की वस्तुएं भी भेंट करते हैं। कन्याएं माँ दुर्गा का भौतिक एक रूप हैं। इनकी श्रृद्धाभक्ति से पूजा करने से माँ दुर्गा प्रसन्न होती हैं।नवरात्र में उपवास----
व्रतराज के अनुसार नवरात्र के व्रत में - ‘निराहारो फलाहारो मिताहारो हि सम्मत:’ - अर्थात् निराहार, फलाहार या मिताहार करके व्रत रखना चाहिए। निराहार व्रत में केवल एक जोड़ा लौंग के साथ जल पीकर व्रत रखा जाता है। फलाहारी व्रत में एक समय फलाहार की वस्तुओं से भोजन किया जाता है, और मिताहारी व्रत में शुद्ध, सात्विक एवं शाकाहारी ‘हविष्यान्न’ का ग्रहण होता है। नवरात्रि के व्रत में नौ दिन व्रत रखकर नवमी को कन्या पूजन के बाद पारणा किया जाता है। जिन लोगों के अष्टमी पुजती है, वे अष्टमी को कन्या पूजन के बाद पारणा कर लेते हैं। यदि नौ दिन का व्रत रखने का सामथ्र्य हो, तो नवरात्र की प्रतिपदा, सप्तमी अष्टमी एवं नवमी में किसी एक या दो दिन का व्रत अपनी श्रद्धा एवं शक्ति के अनुसार रखना चाहिए।
तन्त्रगम के अनुसार व्रत के दिनों में आचार एवं विचार की शुद्धता का पालन करने पर जोर दिया गया है। अत: व्रत के दिनों में चोरी, झूठ, क्रोध, ईष्र्या, राग, द्वेष एवं किसी भी प्रकार का छल-छिद्र नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्रत के दिनों में मन, वचन एवं कर्म से किसी का दिल दु:खाना नहीं चाहिए। जहां तक सम्भव हो, दूसरों का भला करना चाहिए।पूजा के उपचार----
पूजा में जो सामग्री चढ़ाई जाती है, उनको उपचार कहते हैं, ये पंचोपचार, दशोपचार एवं षोडशोपचार के भेद से तीन प्रकार के होते हैं।
पंचोपचार : गन्ध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य - इन पाँचों को पंचोपचार कहते हैं।
दशोपचार : 1. पाध, 2. अघ्र्य, 3. आचमनीय, 4. मधुपर्क, 5. आचमनीय, 6. गन्ध, 7. पुष्प, 8. धूप, 9. दीप एवं 10. नैवेद्य - इनको दशोपचार कहते हैं।
षोडशोपचार : 1. आसन, 2. स्वागत, 3. पाध, 4. अघ्र्य, 5. आचमनीय, 6. मधुपर्क, 7. आचमन, 8. स्नान, 9. वस्त्र, 10. आभूषण, 11. गन्ध, 12. पुष्प, 13. धूप, 14. दीप, 15. नैवेद्य एवं प्रणामाज्जलि, इनको षोडशोपचार कहते हैं।व्रत/उपवास के फलाहार की वस्तुएं----
आलू, शक रकन्द, जिमिकन्द, दूध, दही, खोआ, खोआ से बनी मिठाइयों, कुट्ट, सिन्घाड़ा, साबूदाना, मूंगफली, मिश्री, नारियल, गोला, सूखे मेवा एवं मौसम के सभी फल-व्रतोपवास के फलाहार में प्रशस्त माने गये हैं। फलाहार की कोई भी वस्तु तेल में नहीं बनायी जाती और सादा नमक के स्थान पर सैन्धा (लाहौरी) नमक प्रयोग में लाया जाता है।सप्तमी/अष्टमी/नवमी की पूजा----
नवरात्र में अपनी कुल परम्परा के अनुसार सप्तमी, अष्टमी या नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा की जाती है। इसमें एकाग्रतापूर्वक जप, श्रद्धा एवं भक्ति से पूजन एवं हवन, मनोयोगपूर्वक पाठ तथा विधिवत कन्याओं का पूजन किया जाता है। इससे मनुष्य की सभी कामनाएं पूरी हो जाती हैं।
चैत्र नवरात्रि को बनाएँ स्वास्थ्य नवरात्रि---
नीम को संस्कृत में निम्ब तथा वनस्पति शब्दावली में आजाडिरिक्ता-इंडिका कहते हैं। नीम के बारे में हमारे ग्रंथों में कहा गया है-
निम्ब शीतों लघुग्राही कटुकोडग्रि वातनुत।
अध्यः श्रमतुट्कास ज्वरारुचिकृमि प्रणतु॥
अर्थात् नीम शीतल, हल्का, ग्राही पाक में चरपरा, हृदय को प्रिय, अग्नि, वात, परिश्रम, तृषा, ज्वर अरुचि, कृमि, व्रण, कफ, वमन, कुष्ठ और विभिन्न प्रमेह को नष्ट करता है। नीम में कई तरह के लाभदायी पदार्थ होते हैं। रासायनिक तौर पर मार्गोसिन निम्बिडीन एवं निम्बेस्टेरोल प्रमुख हैं। नीम के सर्वरोगहारी गुणों के कारण यह हर्बल, ऑर्गेनिक पेस्टीसाइड, साबुन, एंटिसेप्टिक क्रीम, दातुन, मधुमेह नाशक चूर्ण, एंटीएलर्जिक, कॉस्मेटिक आदि के रूप में प्रयोग होता है।
चैत्र नवरात्रि पर नीम के कोमल पत्तों को पानी में घोलकर सिल-बट्टे या मिक्सी में पीसकर इसकी लुगदी तैयार की जाती है। इसमें थोड़ा नमक और कुछ काली मिर्च डालकर उसे ग्राह्म बनाया जाता है। इस लुगदी को कपड़े में रखकर पानी में छाना जाता है। छाना हुआ पानी गाढ़ा या पतला कर प्रातः खाली पेट एक कप से एक गिलास तक सेवन करना चाहिए।
पूरे नौ दिन इस तरह सेवन करने से वर्षभर के स्वास्थ्य की गारंटी हो जाती है। सही मायने में चैत्र नवरात्रि स्वास्थ्य नवरात्रि है। यह रस एंटीसेप्टिक, एंटीबेक्टेरियल, एंटीवायरल, एंटीवर्म, एंटीएलर्जिक, एंटीट्यूमर आदि गुणों का खजाना है। ऐसे प्राकृतिक सर्वगुण संपन्न अनमोल नीम रूपी स्वास्थ्य-रस का उपयोग प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। वैसे तो आप प्रतिदिन पाँच ताजा नीम की पत्तियाँ चबा लें तो अच्छा है। मधुमेह रोगियों द्वारा प्रतिदिन इसका सेवन करने पर रक्त सर्करा का स्तर कम हो जाता है।
नीम की महत्ता पर एक किंवदंति प्रसिद्ध है कि आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि एवं यूनानी हकीम लुकमान समकालीन थे। भारतीय वैद्यराज की ख्याति उस समय विश्व प्रसिद्ध थी। हकीम लुकमान ने उनकी परीक्षा लेने के लिए एक व्यक्ति को यह कहकर भेजा कि इमली के पेड़ के नीचे सोते जाना। भारत आते-आते वह व्यक्ति बीमार पड़ गया।
महर्षि धन्वंतरि ने उसे वापस यह कहकर भेज दिया कि रात्रि विश्राम नीम के पेड़ के नीचे करके लौट जाना। वह व्यक्ति पुनः स्वस्थ हो गया। नीम का रस एक निःशुल्क उपचार पद्धति है। इसका व्यापक उपयोग जनसाधारण में हो, इस हेतु हमें इसकी उपादेयता के बारे में जनमानस को समझाना होगा। नीम जैसे सर्व-सुलभ वृक्ष की पत्तियों के रस के स्टॉल हमें गली, मोहल्लों और कॉलोनियों में लगाने चाहिए। स्वास्थ्य जागरण में नीम रस जीवन रस बने, यही मानवता पर उपकार होगा, आयुर्वेद और मानवता की जय होगी तथा रोगों की पराजय होगी
निम्ब शीतों लघुग्राही कटुकोडग्रि वातनुत।
अध्यः श्रमतुट्कास ज्वरारुचिकृमि प्रणतु॥
अर्थात् नीम शीतल, हल्का, ग्राही पाक में चरपरा, हृदय को प्रिय, अग्नि, वात, परिश्रम, तृषा, ज्वर अरुचि, कृमि, व्रण, कफ, वमन, कुष्ठ और विभिन्न प्रमेह को नष्ट करता है। नीम में कई तरह के लाभदायी पदार्थ होते हैं। रासायनिक तौर पर मार्गोसिन निम्बिडीन एवं निम्बेस्टेरोल प्रमुख हैं। नीम के सर्वरोगहारी गुणों के कारण यह हर्बल, ऑर्गेनिक पेस्टीसाइड, साबुन, एंटिसेप्टिक क्रीम, दातुन, मधुमेह नाशक चूर्ण, एंटीएलर्जिक, कॉस्मेटिक आदि के रूप में प्रयोग होता है।
चैत्र नवरात्रि पर नीम के कोमल पत्तों को पानी में घोलकर सिल-बट्टे या मिक्सी में पीसकर इसकी लुगदी तैयार की जाती है। इसमें थोड़ा नमक और कुछ काली मिर्च डालकर उसे ग्राह्म बनाया जाता है। इस लुगदी को कपड़े में रखकर पानी में छाना जाता है। छाना हुआ पानी गाढ़ा या पतला कर प्रातः खाली पेट एक कप से एक गिलास तक सेवन करना चाहिए।
पूरे नौ दिन इस तरह सेवन करने से वर्षभर के स्वास्थ्य की गारंटी हो जाती है। सही मायने में चैत्र नवरात्रि स्वास्थ्य नवरात्रि है। यह रस एंटीसेप्टिक, एंटीबेक्टेरियल, एंटीवायरल, एंटीवर्म, एंटीएलर्जिक, एंटीट्यूमर आदि गुणों का खजाना है। ऐसे प्राकृतिक सर्वगुण संपन्न अनमोल नीम रूपी स्वास्थ्य-रस का उपयोग प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। वैसे तो आप प्रतिदिन पाँच ताजा नीम की पत्तियाँ चबा लें तो अच्छा है। मधुमेह रोगियों द्वारा प्रतिदिन इसका सेवन करने पर रक्त सर्करा का स्तर कम हो जाता है।
नीम की महत्ता पर एक किंवदंति प्रसिद्ध है कि आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि एवं यूनानी हकीम लुकमान समकालीन थे। भारतीय वैद्यराज की ख्याति उस समय विश्व प्रसिद्ध थी। हकीम लुकमान ने उनकी परीक्षा लेने के लिए एक व्यक्ति को यह कहकर भेजा कि इमली के पेड़ के नीचे सोते जाना। भारत आते-आते वह व्यक्ति बीमार पड़ गया।
महर्षि धन्वंतरि ने उसे वापस यह कहकर भेज दिया कि रात्रि विश्राम नीम के पेड़ के नीचे करके लौट जाना। वह व्यक्ति पुनः स्वस्थ हो गया। नीम का रस एक निःशुल्क उपचार पद्धति है। इसका व्यापक उपयोग जनसाधारण में हो, इस हेतु हमें इसकी उपादेयता के बारे में जनमानस को समझाना होगा। नीम जैसे सर्व-सुलभ वृक्ष की पत्तियों के रस के स्टॉल हमें गली, मोहल्लों और कॉलोनियों में लगाने चाहिए। स्वास्थ्य जागरण में नीम रस जीवन रस बने, यही मानवता पर उपकार होगा, आयुर्वेद और मानवता की जय होगी तथा रोगों की पराजय होगी
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