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बुधवार, जनवरी 25, 2012

क्या धर्म और मोक्ष के बीच का जीवन ही सर्वोच्च और सम्पूर्ण जीवन है..????

क्या धर्म और मोक्ष के बीच का जीवन ही सर्वोच्च और सम्पूर्ण जीवन है..????
--------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस 


प्रेम से बोलिये -- परमप्रभु परमेश्वर की ऽऽ जय ! परमेश्वर के यहाँ पूर्ति शब्द का कोई स्थान नहीं है । आपको यदि सोचना ही है तो मुक्ति-अमरता सोचिये । आपको यदि सोचना ही है तो यश-कीर्ति सोचिये। आपको सोचना ही है तो परमेश्वर के लक्ष्यभूत जो कार्य है जिसके लिये उसने आपको अपने से जोड़ा है, उस धर्म-धर्मात्मा-धरती के बारे में सोचिये ! सोचना ही है तो जिसके लिये परमेश्वर ने आपको अपने से जोड़ा है-- धरती से असत्य-अधर्म को मिटाने और सत्य-धर्म को लाने के लिये -- उसके बारे में सोचिये ! ये रोटी-कपड़ा-मकान तथा साधन व सम्मान -- यानी पूर्ति पूर्ति पूर्ति के विषय में क्या सोचना है ! यह भी कोई सोचने का विषय है ? ऐसा नहीं हो सकता ! परमेश्वर के यहाँ ऐसा नहीं हो सकता। 

आप मुझसे प्रेम से भी मत बोलिये । बिल्कुल ठन ठन रहिये, लेकिन सत्याभिलाषी रहिये । कोई जरूरी नहीं है कि आप मुझको किसी भी प्रकार का नमन करें, किसी प्रकार का प्रणाम करें, किसी भी प्रकार की मान्यता दें। कोई जरूरी नहीं है । इतना अवश्य चाहिये कि आप मुझे सत्याभिलाषी दिखलायी दें और सत्य की आवाज को बुलन्द करने का साहस आप में हो। भले ही सूली पर ईसा की तरह से क्यों न चले जाना पड़े धर्म के लिये लेकिन सत्य की आवाज बुलन्द करने के विषय में जरा सा भी झुकाव-अभाव दिखाई देगा तो भइया अब प्राप्ति के विधान से वंचित रहेंगे । यह हमारी मजबूरी है । भगवद् ज्ञान की प्राप्ति भगवद् समर्पित-शरणागत भाव से ही सम्भव है । जिज्ञासा-श्रध्दा उसका माध्यम है ।

जीव:-- हम जिस जीव, ईश्वर और परमेश्वर को दिखलायेंगे, हम पाकेट में ले करके नहीं आये हैं । इस प्रकार से हम किस जीव का दर्शन करायेंगे ? हम किस ईश्वर का दर्शन करायेंगे ? हम किस परमेश्वर का दर्शन करायेंगे कोई कागज में फोटो लेकर नहीं आये हैं, कोई मूर्ति लेकर नहीं आये हैं, कोई वस्तु लेकर नहीं आये हैं । ये वही जीव है जो आपके शरीर से क्रियाशील है--उसी जीव को जो आपमें बैठा है, आपके शरीर में बैठा है और देख रहा है, सुन रहा है, बोल रहा है, सोच रहा है, चल रहा है यानी शरीर के माध्यम से सारी क्रियाओं को जो करने-कराने में लगा है उसी जीव का, आप जीव को आपको दिखलाना है। पाकेट में से निकाल करके नहीं । आपके शरीर में जो है उस शरीर वाले को, उसी जीव को जो आपके शरीर में रहते हुए सब कुछ क्रियाशील रूप में होते हुए दिखलाई दे रहा है ।

आत्मा:- हमारा ईश्वर कौन होगा ? हमारी आत्मा कौन होगी ? हमारा ब्रम्ह कौन होगा जिसे दिखाने की बात कर रहे हैं ? जिस तरह से आपकी शरीर जीवित है जीव से, ठीक उसी तरह आपका जीव जीवित है आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह से । उसी आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह का साक्षात्कार आपको कराया जायेगा जिससे आपका जीव जीवित है । सुनेंगे ही नहीं, देखेंगे भी। मात्र सुनना नहीं है, देखना भी है। देखने में यदि किसी प्रकार का संदेह-शंका हो रहा है कि यह कोई जादू तो नहीं, इसमें कोई सम्मोहन की क्रिया तो नहीं, इसमें कोई अन्यथा मायावी खेल या अन्यथा कोई विधान तो नहीं तो इसके लिये आपको स्पष्टत: प्रमाण मिलेगा । आप जिस सद्ग्रन्थ के मान्यता वाले होंगे, आपके दिल-दिमाग में जिस सद्ग्रन्थ के प्रति मान्यता होगी, जिस किसी महापुरुष-सत्पुरुष के प्रति मान्यता होगी उसी के ग्रन्थ से आपको प्रमाणित किया कराया जायेगा । उसके फार्मूला, उसके सूत्र को, उसके पध्दति-प्रोसेस-प्रक्रिया को, उसके परिणाम को, उसके उपलब्धियों को सब आपको दिखलाया जायेगा । शास्त्र सम्मत है, सद्ग्रन्थों द्वारा समर्थित व स्वीकारोक्ति प्राप्त है, कुछ भी मनमाना नहीं है। वेद से, उपनिषद् से, रामायण से, गीता से, पुराण से, बाइबिल से, कुर्आन से अथवा किसी भी सद्ग्रन्थ से प्रमाणित एवं समर्थित है । थोड़ी देर के लिये आप इसमें से किसी को नहीं मानते हैं तो कोई बात नहीं, आप साइन्स को (विज्ञान को) तो मानते होंगे । तो साइन्स और विज्ञान से ही सही। आप मैथमेटिक्स को मानते होंगे, उसी से सही । आप साहित्य-लिट्रेचर को तो मानते होंगे, उसी से सही। ज्ञान तो किसी भी किताब से दिया जा सकता है । सारे मार्क, सारी त्रिज्यायें ज्ञान रूपी केन्द्र बिन्दु के हैं। सारी त्रिज्याएँ जो भी विषय-वस्तु हैं, ज्ञान रूपी केन्द्र से परिस्फुटित (प्रकट) हुई हैं-- प्रवाहित हुई हैं । इसलिये आप जिस विषय-वस्तु के होंगे आपको आपकी विषय-वस्तु से इस ज्ञान को दिया जा सकता है । आप किसान हैं, आप अनपढ़ हैं, कोई जरूरी नहीं कि आप गीता, रामायण, वेद, पुराण देखें । आपके किसानी के माध्यम से इस ज्ञान को दिया जायेगा और आप देखेगे कि आपको आपका जीव दिखलाई दे रहा होगा। ये आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह आप देख रहे होंगे और वर्णन कर रहे होंगे, उसके विषय में आप खुद बतला रहे होंगे कि हम ऐसा देख रहे हैं-- हमको इस तरह दिखलाई दे रहा है, हम ये देख रहे हैं । और इतना ही नहीं, आप बोलते जायेगे-- वहाँ टेप होता जायेगा। सब लोग वहाँ जो भाग लेंगे-- रहेंगे, बैठे रहेंगे, परसनल और सेप्रेट कोई क्रिया नहीं आपके लिये सब शास्त्र सम्मत होंगे और जितने उसमें भाग लेने वाले होंगे, उन सब के समक्ष सबकी उपस्थिति में होंगे ।
आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह कारण शरीर है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण । उस कारण में कोई रूप नहीं होगा, कोई आकृति नहीं होगी । वह सदा-सर्वदा निराकार होता है । कभी साकार हो ही नहीं सकता । साकार होगा तो वह आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-शिव शक्ति रह ही नहीं जायेगा। जब भी उसका दर्शन होगा तो ज्योतिर्मय शब्द और शब्द ज्योतिरूप में होगा । तो इसलिये इसको नाम-रूप कह दिया गया । शब्द जो है उसका नाम हो गया और ज्योति उसका रूप हो गया । जब भी आप आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह का दर्शन करेंगे आत्म-ज्योति रूप आत्मा, ब्रम्ह-ज्योति रूप ब्रम्ह-शक्ति, स्वयं ज्योति रूप शिव-शक्ति या दिव्य-ज्योति रूप ईश्वरीय सत्ता-शक्ति या आलिमे नूर-नूरे इलाही-लाइफ लाइट-डिवाइन लाइट -चाँदना- परमप्रकाश रूप दिन रात के रूप में दर्शन होगा । सहज प्रकाश रूप भगवाना । नहिं तहँ पुन विज्ञान विहाना ॥ ये सारे दर्शन आपको होंगे ।

परमात्मा:-- इस तरह से आप बन्धुओं से कहना है कि वह परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रम्ह कौन होगा ? वही होगा । आप दुनिया के किसी भी प्रार्थना को लाइयेगा, किसी भी बन्दना को लाइयेगा, आप किसी भी भजन को लाइयेगा, आप किसी भी प्रेयर को लाइयेगा, उस प्रेयर में परमेश्वर की प्राप्ति और परमेश्वर के विषय में जो भी वर्णन होगा-- उसी लक्षण वाला परमेश्वर आपको मिलेगा । आपको जो भी प्रेयर-प्रार्थना याद हो, आप जो भी प्रेयर-प्रार्थना ले करके, भजन-कीर्तन ले करके आप उपस्थित होंगे, उसमें परमेश्वर से सम्बन्धित जो भी लक्षण आप जानते होंगे उसी लक्षण वाला परमेश्वर आपको मिलेगा क्योंकि मेरा परमेश्वर पॉकेट में कोई फोटो-मूर्ति नहीं है । मेरा परमेश्वर वही है जो सृष्टि के पूर्व भी था, जिसे सृष्टि के पश्चात् भी रहना है और सारी सृष्टि जिसके अन्दर है । हम आप सभी सहित सारी सृष्टि जिसके अन्दर है । उसी परमेश्वर के प्राप्ति की बात मैं कर रहा हूँ, जिसे आप अजन्मा कहते हैं, जिसे आप अनाम और अरूप कहते और समझते हैं, जिसे आप जन्म-मृत्यु से परे कहते-समझते हैं, जिसे आप सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति-स्थिति और लय का संचालक समझते हैं उसी परमेश्वर के दर्शन की बात कह रहा हूँ । मेरा परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान् कोई अलग-सेप्रेट वस्तु नहीं है । वही है जिन लक्षणों का आप गाते हैं, जिन लक्षणों को आप पाठ करते हैं, जिन लक्षणों वाला परमेश्वर आपके रेडियो स्टेशन से प्रारम्भिक समय में (प्रारम्भ में) भजन-कीर्तन जो सुनाई देता है उसी परमेश्वर की बात कर रहा हूँ । आप पूछेंगे एक बात कि ये कहाँ रहते हैं? कहाँ से लाकर आप लिखलाइयेगा? इनके स्थान को भी थोड़ा संकेत कर दूँ- 
'जीव तो सभी के शरीर में रहता है ।'
'आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-सोल-नूर-स्पिरिट कुछ अन्दर भी और पूर्णत: बाहर।' हलांकि जब दर्शन होगा तो बोलना बड़ा मुस्किल हो जायेगा कि अन्दर है कि बाहर है । बाहर है कि अन्दर है । बताना मुश्किल हो जायेगा । आप जब दर्शन करेंगे तो देखेंगे कि आप निर्णय नहीं कर पायेंगे कि हम भीतर देख रहे हैं या बाहर देख रहे हैं । हम बाहर देख रहे हैं कि भीतर देख रहे हैं । देखते हुए भी यह निर्णय नहीं हो पायेगा । क्यों नहीं हो पायेगा? जिस समय आप ईश्वरीय दर्शन में रहेंगे उस समय आपको अपने शरीर का भाव ही नहीं रह जायेगा । उस समय आपकी शरीर ही नहीं दिखलाई देगी । इसलिये भीतर-बाहर का प्रश्न ही खत्म हो जायेगा । यदि आप ईश्वर दर्शन से लौट करके सामान्य शरीर भाव में रहेंगे तब भी यदि आप से पूछा जाय कि आपने भीतर देखा है या बाहर? तो भी आप निर्णय नहीं कर पायेंगे । कुछ लोग कहेंगे कि हमने भीतर तो देखा है । कुछ कहेंगे नहीं, भीतर कहाँ देखा है-- बाहर देखा है । तब और भाई कहेंगे--'नहीं भाई ! कैसे बाहर दिखायी दिया? हमने भीतर देखा है । कोई कहेंगे--नहीं भाई, बाहर दिखाई दिया । तो कहाँ, कैसे बाहर दिखाई दिया? हम तो भीतर देखे हैं । बड़ा मुस्किल हो जायेगा भीतर-बाहर का निर्णय लेना । इसलिये कुछ भीतर भी और बाहर भी है । 
परमेश्वर की जब प्राप्ति होगी, परमेश्वर जो है जब ये घोषणायें किया जा रहा हैं कि 'कण-कण में भगवान है' तो हम कहेंगे कि ''घोर मूर्खतापूर्ण यह अज्ञान है ।'' ऐसे उन महात्माओं को भगवान् की जानकारी ही नहीं है । धरती पर तो भगवान् रहता ही नहीं है, कण-कण में भगवान् कहाँ से आ जायेगा ? धरती पर भगवान नहीं रहता है धरती पर, फिर कण-कण में कहाँ से आ जायेगा ? कुछ लोग कहने में लगे हैं कि मुझ में भी है, तुझ में भी है। 'मुझमें-तुझमें खडग खम्भ में ।' यानी मेरे में भी भगवान्, तेरे में भी भगवान् । मैं भी भगवान्, तू भी भगवान् । यह जो है यह भ्रामक और मूर्खता पूर्ण ज्ञान मैं भी भगवान्, तू भी भगवान् । यह जो है यह भ्रामक और मूर्खता पूर्ण ज्ञान की पहचान है । यह मिथ्या ज्ञान की पहचान है । क्योंकि सभी शरीरों में भगवान्? पूरे सतयुग में, पूरे भू-मण्डल पर देव लोक में भी एक श्रीविष्णु जी भगवान् के अवतार थे । पूरे त्रेता युग में पूरे भू-मण्डल पर एक श्रीरामचन्द्र जी महाराज भगवान् के अवतार थे और पूरे द्वापर युग में पूरे भू-मण्डल पर एक श्रीकृष्ण्र जी महाराज भगवान् के अवतार हुए । जो कोई भी मेरे में, तेरे में, सब में, सब के भीतर रहने वाली यह आत्मा ही परमात्मा-भगवान् है--ये जिसकी आवाज है, वे चाहे जो कोई भी हो उसका ज्ञान भ्रामक और मिथ्या है । उनका ज्ञान मिथ्यात्व से भरा है । उनके अन्दर एक मिथ्या महत्वाकांक्षा है जो ऐसा बोलने-कहने में लगे हैं । वास्तविकता यह है कि परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह- खुदा-गॉड-भगवान् धरती पर ही नहीं रहता--धरती पर ही नहीं । आप जब दर्शन करेंगे तो दिखलाई देगा कि सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड ही उसमें है । आपके सहित सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड उसमें है और वह इस ब्रम्हाण्ड से परे है ।

--------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस
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सच्चा धर्म 'एक' ही है, अनेकानेक नहीं !

वास्तव में 'धर्म' एक सत्य-प्रधान, दोष-रहित, सर्वोच्च, उन्मुक्त अमर जीवन विधान है'' जिसमें साम्प्रदायिकता का लेशमात्र भी स्थान नहीं है। हाँ ! आजकाल यह बात अवश्य हो गयी है कि मिथ्या महत्तवाकाँक्षी लोग 'धर्म' के नाम पर साम्प्रदायिकता रूपी चादर को ओढ़ कर स्वार्थपूर्ति रूपी रोटी सेंकने में लगे हुए हैं जिसका दुष्परिणाम है कि 'धर्म' बदनाम हो रहा है जबकि 'धर्म' जो सदा से ही वास्तव में सत्य प्रधान एक ही रहा है और सच्चाई पूर्वक देखा जाए तो 'धर्म' एक ही है और वह यही है कि 'धर्म' एक सत्य प्रधान, दोष-रहित, सर्वोच्च एवं उन्मुक्त अमर जीवन विधान है ।'
आजकल जो हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई आदि-आदि नामों पर 'धर्म' का जो वर्गीकरण किया गया है, वास्तव में वह (हिन्दू-धर्म, ईसाई धर्म, मुस्लिम धर्म, सिक्ख धर्म आदि-आदि तथाकथित भेद वाची नाम) 'धर्म' नहीं, बल्कि सम्प्रदाय हैं। सच्चा 'धर्म' तो वास्तव में 'सत्य-सनातन धर्म' है जो मूल-भूत सिध्दान्त रूप 'एको ब्रम्ह द्वितीयोनास्ति' तथा कर्म-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान रूप तीन पध्दतियों वाला तथा 'असदोमासद्गमय (असत्य नहीं, सत्य की ओर चलें'), तमसोमाज्योतिर्गमय (अन्धकार नहीं, प्रकाश की ओर चलें) और 'मृत्योर्माऽमृतंगमय (मृत्यु नहीं, अमरता की ओर चलें)' प्रधान-विधान है ।
ठीक यही बात 'ईसाइयत धर्म' (क्रिश्चियानीटी) के अन्तर्गत भी है । जैसे 'वन्ली वन गॉड' तथा वर्क विद स्प्रिचुअलाइजेशन (अध्यात्म) और नाँलेज (तत्त्वज्ञान) रूप तीन पध्दतियों वाला तथा सेल्फ-सोल एण्ड गॉड रूपी उपलब्धि तथा 'डिवोशन' एण्ड वर्सिप विद विलिवनेश टू गॉड' मात्र ही है ।
इस्लाम धर्म की भी मान्यता 'सत्य सनातन धर्म' अथवा ईसाइयत धर्म वाला ही है । अन्तर मात्र कुछ भाषा और देश-काल-परिस्थिति जन्य ही है, न कि कोई मौलिक। इस्लाम की भी मान्यता के अन्तर्गत वही मान्यतायें हैं। जैसे-- 'ला अल्लाह इअिल्लाहुव'--'तौहीद' (एकेश्वरवाद) तथा 'मोहकम' (कर्म-विधान) 'मुतशाविहात' (अधयात्म) और 'हुरूफ मुकत्ताऽऽत' (तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप खुदाई इल्म) रूप तीन पध्दतियों वाला तथा रूह से रूहानी, नूर से नूरानी और अल्लाहतऽला की मेहरबानी वाले तीन प्रकार की उपलब्धियों वाला अल्लाहतऽला के प्रति अथवा दीने इलाही के राह में मुसल्लम ईमान के साथ (एकमेव अल्लाहतऽला की राह में मुसल्लम ईमान के साथ) समर्पित शरणागत जीवन के रूप में रहना-चलना ही 'इस्लाम धर्म' है ।
ठीक यही ही 'सिक्ख-धर्म में भी है । जैसे सिक्ख धर्म भी मूलभूत सिध्दान्त रूप 'एकमेव एक ओंकार' (१ ॐ कार) सतसीरी अकाल रूप सूत्र-सिध्दान्त वाला तथा 1ॐकार- सतसीरी अकाल पुरुष के साक्षात् अवतार रूप सद्गुरु के प्रति पूर्णत: समर्पित एवं शरणागत हो 'दोष-रहित उन्मुक्त जीवन विधान' रूप सच्चा अमर जीवन विधान ही सिक्खिजम भी है ।
अब आप ही सद्भावी पाठक बन्धु देखें कि मूलभूत सिध्दान्त रूप अभीष्ट लक्ष्य तो सबका एक ही है । जैसे-- 'एकोब्रम्ह द्वितीयोनास्ति' अथवा अद्वैत्तत्त्व बोध अथवा एकत्त्व बोध' अथवा 'वन्ली वन गॉड' (एकमेव एक गॉड-फादर (भगवान) अथवा 'ला इलाह इल्लाहुव' (एकमेव केवल खुदा (भगवान) ही पूजा-आराधना का अभीष्ट है, दूसरा कोई नहीं) अथवा 'एक ॐ कार-सतसीरी अकाल के साक्षात् अवतार रूप सद्गुरु ही सर्वसमर्थ और पूजा बन्दना-आरती-भजन- कीर्तन का अभीष्ट है, दूसरा कोई नहीं ।'
'अब आप ही सद्भावी पाठक बन्धुगण सूझबूझ सहित उपर्युक्त को देखकर निर्णय लें कि क्या कोई भेद भाव है ? क्या सभी एकमेव एक खुदा-गॉड-भगवान-सत् सीरी अकाल वाला ही नहीं है ? पायेंगे कि एकमेव एक खुदा-गॉड-भगवान- सत सीरी अकाल पुरुष अथवा सद्गुरु रूप एकमेव एक ही अभीष्ट उपलब्धि वाला एक ही 'धर्म है, दो नहीं । अनेकानेक धर्मों की कल्पना तो बिल्कुल ही मिथ्यात्व पर आधारित है।
----------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस
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इस सत्य को जानिए

- जीव, ईश्वर और परमेश्वर तीनों अलग अलग होते हैं ।
या
- जीव, आत्मा और परमात्मा तीनों अलग अलग होते हैं ।
या
- जीव, ब्रह्म और परमब्रह्म तीनों अलग अलग होते हैं ।
या
- रूह, नूर और अल्लाहतला तीनों अलग अलग होते हैं ।
या
- Self, Soul(Devine Light) और GOD तीनों अलग अलग होते हैं ।

= जीव, रूह और सेल्फ ये एक ही हैं अर्थात समानार्थी हैं।
= आत्मा, ईश्वर, ब्रह्म, नूर, Soul (Devine Light) ये सब एक ही है अर्थात समानार्थी हैं।
= परमात्मा, परमेश्वर, परमब्रह्म, खुदा, अल्लाहतला, GOD, अकाल पुरुष, यहोवा ये सब एक ही है अर्थात समानार्थी हैं।
इस प्रकार जीव, ईश्वर और परमेश्वर तीनों को एक ही कहना अज्ञानता है। जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा कहना मूर्खता है। आत्मा(नूर) परमात्मा(अल्लाहतला) से पैदा होने वाला केवल एक अंश है । जैसे सूर्य की किरणें सूर्य से पैदा होती हैं। अब सूर्य की किरणों को ही सूर्य समझ लेना कहाँ की बुद्धिमानी है ? तात्पर्य यह है की किरणें सूर्य नहीं हैं बल्कि सूर्य का अंश हैं और सूर्य से पैदा होती हैं। अगर आपके कमरे में सूर्य की किरणें पड़ रही हैं तो इसका मतलब यह नहीं हुआ की सूर्य आपके कमरे में आ गया है। इसी प्रकार आत्मा(सोल या नूर) भी परमेश्वर(अल्लाहतला) से पैदा होता है। साधारणतः लोग अल्लाहतला को नूर समझ लेते हैं जबकि सच्चाई यह है की अल्लाहतला तो नूर को पैदा करने वाला है। वह खुद तो नूर से भी परे है। नूर तो मुहम्मद साहब थे। अब अल्लाहतला को भी नूर कहना कितनी गलत बात है ? जबकि दोनों में कोई बराबरी नहीं है। ईसामसीह भी परमेश्वर के पुत्र अर्थात Devine Light थे, वे स्वयं परमेश्वर नहीं थे। इसी प्रकार कबीर, गुरुनानक देव, महावीर जैन, शिरडी वाले साई बाबा आदि ये सब भी आत्मा, ईश्वर या ब्रह्म की श्रेणी में आते हैं। इनमें से कोई भी परमात्मा, परमेश्वर या परमब्रह्म नहीं है। परमेश्वर तो ईश्वरों का भी ईश्वर है, ब्रह्म का भी ब्रह्म, परमब्रह्म है।
वास्तव में परमात्मा से पैदा होने वाला आत्मा प्रत्येक स्वांस के साथ शरीर में प्रवेश करता रहता है। जैसे ही स्वांस के माध्यम से आत्मा शरीर में प्रवेश करता है, वैसे ही वह गुण दोष से आव्रत होकर परिवर्तित होकर ‘जीव(रूह)’ बन जाता है। इस प्रकार शरीर के अंदर आत्मा का गुण दोष से युक्त, परिवर्तित रूप ‘जीव’ रहता है । विशुद्ध आत्मा शरीर के अंदर नहीं रहता । सुख दुख का आभास और कर्मफल का भोग ये सब जीव(रूह) ही करता है क्योंकि आत्मा पर सुख दुख का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । जन्म, मरण, कर्म, भोग आदि ये सब जीव का काम है आत्मा का नहीं। आत्मा तो इन सब से परे होता है। यह जीव ही होता है जो शरीर में रह कर कर्म-फल और सुख-दुख भोगता है। जीव एक ड्राईवर की तरह इस शरीर को चलाता रहता है। आत्मा जीव और परमेश्वर के बीच में काम करता है। जीव के अस्तित्व को शरीर में बनाए रखने का काम आत्मा का होता है। जीव तभी तक शरीर में रहता है जब तक आत्मा शरीर में प्रवेश करता रहता है। जब आत्मा शरीर में प्रवेश करना बंद कर देता है तो जीव उस शरीर को छोडकर किसी दूसरे शरीर में चला जाता है। यह क्रम तब तक लगातार चलता रहता है जब तक जीव अपने वास्तविक मूल अवस्था को प्राप्त नहीं कर लेता अर्थात परमेश्वर में विलय नहीं हो जाता । वास्तविक जानकारी न होने की वजह से लोगों ने सब अर्थ का अनर्थ कर दिया है। वास्तव में ये जितने भी आध्यात्मिक लोग हुये हैं, इन्हे सिर्फ आत्मा, ईश्वर या ब्रह्म की ही जानकारी थी क्योंकि अध्यात्म के द्वारा सिर्फ ईश्वर को ही जाना जा सकता है, जीव और परमेश्वर को नहीं। क्योंकि जीव को जानने का विधान है स्वाध्याय(Self Realization) और परमेश्वर को जानने का विधान है तत्वज्ञान(Perfect Knowledge या खुदाई इल्म)। हर चीज को जानने और समझने का एक विधान होता है, उसी विधान के द्वारा ही उस चीज को जाना और समझा जा सकता है। ये जितने भी संत-महात्मा, पीर, पैगम्बर आदि हुये हैं, ये सब आध्यात्मिक लोग थे।
योग, साधना, ध्यान, समाधि आदि ये सब अध्यात्म के अंतर्गत आते हैं और अध्यात्म की अंतिम उपलब्धि है आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म या नूर का दर्शन । इससे अधिक और कुछ नहीं । जब इन आध्यात्मिक लोगों को इससे अधिक कुछ और मिला ही नहीं तो जो मिला उसी को सब कुछ घोषित कर दिया। ईश्वर को ही परमेश्वर समझने लगे, जीव को ही आत्मा समझने लगे जिससे सब अर्थ का अनर्थ हो गया। लेकिन परमेश्वर की कृपा से अब वह समय आ गया है इन झूठी मान्यताओं को छोडकर सत्य को स्वीकार करने का वरना विनाश बहुत तेजी से समीप आ रहा है।

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